Wednesday, February 2, 2022

विश्व में पहली बार धारावाहिक प्रकाशन की मानिंद फ़ेसबुक पर प्रस्तुत जीवन गाथा

एक एकम् एक                             -    1 

 

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

जीवन में कुछ किया नहीं, कुछ हुआ नहीं सुनाने को,

सोचा, मित्रों से पूछ लूँ, कुछ है उनके पास बताने को,

मेरी आत्मकथा तो मेरे सांसों की कहानी भर है,

पीछे लंबी सी जिंदगानी, आगे थोड़ी सी उमर भर है,

आप ही बताओ मुझे आपने कैसा सुना, समझा, देखा, पाया,

‘सरन’ ने खुद को समझने की बहुत कोशिश की पर समझ न पाया।

मित्रों, जाने वो कौन लोग हैं  जो बसंत पार करते हैं, मैं तो जीवन के सत्तर पतझड़ पार कर चुका हूँ। बहुत से विद्वानों की आत्मकथा और जीवन गाथा पढ़कर लगने लगा है कि अपनी फालतू ही सही पर एक जीवनगाथा तो होनी चाहिये। बस… लग गया लिखने कि अचानक ध्यान आया –

खत्म हो गई हमारे जीवन की दास्तान चार पन्नों में,

शुमार हो गये हम भी साहित्य के विपन्नों में,

शायद आप ही कुछ आदर-वादर करवादें,

वरना ’सरन’ तो हैं आला दर्जे के निकम्मों में।

अंदर की बात आपको बता दी है, दीगर बात यह है कि अब ठान लिया है अपनी आत्म कथा लिखने की तो सोचा अपनी आत्मकथा स्वयं तो बहुत से लोग लिखते हैं, कुछ लोग दूसरों की जीवनी लिखते हैं पर जैसा विश्व हिंदी संस्थान का इतिहास रहा है, हमने सोचा कि यह जीवन गाथा भी कुछ नये तरीके से लिखी जाय।

क्रमश: ….. २



सरन घई

विश्व में पहली बार धारावाहिक प्रकाशन की मानिंद फ़ेसबुक पर प्रस्तुत जीवन गाथा

एक एकम् एक                             -    २ (गतांक से आगे)

 

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

एक एकम एक

बहुत किये जोड़-बाकी,

बहुत किये गुणा-भाग,

कई लाख से गुणा किये,

कई लाख से भाग,

अब उम्र के आखिरी पड़ाव में आया समझ,

ये गुणा-भाग सब फ़िजूल था,

अंतिम सत्य तो बस यही है…

एक एकम एक।

 

जीवन के इस सफ़र में

बहुत से दोस्त मिले,

कुछ दुश्मन भी,

दोस्तों का प्यार रुई के फाहे सा दुलारता रहा,

दुश्मनों का प्रहार तलवार समान काटता रहा।

जीवन में देखे बहुत से उतार-चढ़ाव,

कहीं उथल-पुथल तो कहीं ठहराव,

जिंदगी खाती रही हिचकोले ज्यों नदिया में नाव,

अब आखिरी पड़ाव में विसर गया जिंदगी का चाव।

त्रिकोण, चतुर्भुज, षटकोण रास्ते से हट गये,

कुछ साथ रहे, कुछ छोड़ गये,

कुछ छूट गये, कुछ बिखर गये,

शेष रहा तो बस इतना…

एक एकम एक।

 

मैं आया था दुनिया में निपट अकेला,

अंतिम सफ़र करूंगा निपट अकेला,

छोड़ जाऊंगा दुनिया में यह संदेश,

ये जग अपना नहीं, ये है परदेस,

चल उठ ’सरन’ बांध कर्मों की पोट,

ले कांधे पर टांग सब खरा-खोट,

चल पड़ घर की ओर लिये इरादे नेक,

अकेला, एक ही आया था जायेगा भी एक,

यहीं रह जायेंगे दोस्त, नाते-रिश्ते, पैसा,

आया था अकेला, जायेगा अकेला,

याद रख, बतादे सबको, अंतिम सत्य…

एक एकम एक।

 

हर व्यक्ति संसार में अकेला आया और अकेला ही वापिस चला जायगा, फिर से कहीं जाने या फिर किसी शून्य में समाने।

मैं भी ऐसे ही जग में आया हूँ, निपटअकेला। जिंदगी में जितना जोड़ा-घटाया, किसी काम न आया, जो गुणा-भाग किया, सब किया ही रह गया। रिश्ते बने, संबंध बने, मित्र बने, संगी-साथी बने, जमीनें-घर खरीदे-बेचे, कारें-स्कूटर खरीदे-बेचे, सरकारी और प्राइवेट नौकरी की, व्यापार किये, स्कूल चलाया और फिर सब छोड़-छाड़ कर कनाडा में बसने जा पहुँचे दो अटैचियां लेकर। इस बीच अमेरिका भी रह आये, तीन साल, जो बनाया, सब तीतर-बटेर हो गया, रह गईं तो वही, दो अटैचियां, और जब ऊपर का बुलावा आयेगा तो वे दो अटैचियां भी साथ न जायेंगी। यही है जीवन की कहानी – एक एकम एक।         -२.

क्रमश: …..३



एक एकम् एक                    - निरंतर 3

सरन घई

संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

अब प्रारंभ करते हैं अपनी राम कहानी – एक एकम एक, विश्व में पहली बार, फ़ेसबुक पर।

बात १९५० से शुरू करें या उससे भी पहले से। १९५० से ही करते हैं जब हमने इस धरती पर अवतार लिया था। उससे पहले तो किसी महाशून्य में समाया हुआ था।

पुराने जयपुर के एक किराये के मकान में घर में ही जन्म हुआ था मेरा, बस इतना याद है। अपनी याद में वह घर व वह कमरा मैंने तब देखा जब मेरा विवाह पक्का हुआ था। मैं और मेरे पिता जी उस घर के मकान मालिक को शादी का कार्ड देने गये थे। मेरे पिता जी के उस परिवार के साथ अच्छे संबंध रहे लेकिन मुझे नहीं लगता कि आना-जाना अधिक रहा होगा। वैसे भी पहले आवाजाही के साधन कम ही होते थे तो मिलना-जुलना भी कम ही रह पाता होगा। मैं तो पहले कभी उस घर में गया नहीं, उस घर में पैदा हुआ, वह बात अलग है।

माँ बताती थीं कि जब पाकिस्तान अलग हुआ तो हमारा परिवार पाकिस्तान से आकर अलवर रहे क्योंकि हमारे परिवार को क्लेम में वहाँ जमीन मिली थी। एक-दो वर्ष अलवर में रहकर जमीन वैसे ही छोड़कर पिताजी ने निश्चय किया कि जयपुर बसेरा बनाया जाय। तो जयपुर में सर्वप्रथम हमारा परिवार उसी घर में रहा लेकिन तब तक मेरा संसार में आना नहीं हुआ था। मकान मालकिन बहुत सहृदय महिला थीं। वो मेरी माँ को चाय की पुड़ियां लाकर देती थीं सिलाई करने के लिये। अब के बच्चे तो नहीं जानते होंगे लेकिन हमने देखी हैं चाय की पुड़ियां, दो पैसे में एक के हिसाब से बिकती थीं। शायद भारत आ कर वही हमारे परिवार की पहली कमाई रही होगी।

बाद में हम जयपुर के ही राजापार्क के एक मकान में रहने चले गये (पहले राजा पार्क का नाम फ़तह टीबा था) मुझे पक्का याद है राजापार्क का वह मकान २० वर्ष की किस्तों में ४००० रुपये में खरीदा था। पिताजी के बताये अनुसार ५०० गज जमीन पर बना का वह मकान पंजाबी को-आपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी ने अलाट किया था। उसमें शुरू में दो कमरे और एक रसोई बनी थी और बाकी जमीन खाली पड़ी थी।

मेरा बचपन उस मकान में कम बीता क्योंकि सारा परिवार वहां से कोटा, राजस्थान चला गया। वहां पर हम किराये के मकान में रहते थे। मैं तब नया-नया चलना सीखा था। शायद एक वर्ष से कुछ अधिक का ही रहा हूँगा। लेकिन मुझे एक बात आज तक याद है। जब पहली बार मैं बिना सहारे के कुछ कदम बढ़ाने लगा तो मेरे मन में यह विचार आया था कि अब तो मैं पूरी दुनिया में कहीं भी जा सकता हूँ। और मेरी उस दुनिया की सीमा क्या थी, जानते हैं? घर से बाहर निकलकर गली तक की दुनिया।

यह तब की बात है जब मैं बिल्कुल छोटा था, शायद तीन-चार साल का नन्हा-मुन्ना। अक्सर बच्चे को जिज्ञासा होती है कि वह कैसे पैदा हुआ। हम सात भाई और एक बहन थे। बड़ों में अक्सर यह चर्चा होती थी कि कौन कब, कहाँ पैदा हुआ। उन्हें सुन-सुन कर मेरी भी इच्छा होती थी यह जानने की कि मैं कब, कहां और कैसे पैदा हुआ! भाइयों से पूछता तो उनका जवाब होता कि तू रोशनदान से गिरा था। बचपन के कितने साल मेरी इस सोच, दर्द और फ़िक्र में गुजर गये कि रोशनदान से मैं जमीन पर गिरा या पलंग पर। पलंग पर इसलिये कि जिस कमरे में मैं अपनी मां के साथ सोता था, वहाँ रोशनदान के नीचे एक पलंग बिछा हुआ था जिस पर पिताजी सोते थे। पिताजी को हम बाऊ जी कहकर बुलाते थे। खैर, तो जमीन पर गिरा या पलंग पर, किसी ने मुझे कैच किया होगा या धड़ाम से नीचे गिरा होऊँगा। कितनी चोट लगी होगी मुझे। बहुत सालों तक उस दर्द को सहता रहा। अब समझ में आया कि बचपन बचपन ही होता है।

                                                                                    क्रमश: ….. ४



एक एकम् एक                    - निरंतर 4

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

मैं जब लगभग ३-४ साल का था, मेरी बहिन की शादी हो गई। बहिन की शादी पर पूरी गली सजाई गई थी, झंडियां लगी थीं। मैंने अपने ३-४ वर्षीय दोस्तों को कहा कि हमारी गली में झंडियां लगी हैं, तुम्हें दिखा कर लाता हूँ। तब उन्होंने बताया पागल, तेरी बहिन की ही तो शादी हो रही है, उसी की सजावट है। सच में, कितना भोला होता है बचपन। कोटा में आर्य समाज रोड के कोने में एक धर्मशाला थी, वहीं शादी हुई थी, बस इतना ही याद है।

मेरी मम्मी जी बताती थीं कि हमारे पारिवारिक मित्रों में, अब याद नहीं कौन लेकिन हमारे मिलने वाले थे, उनकी और बाऊ जी की बात हुई कि मेरा नाम क्या रखा जाय? मेरे बाल लंबे थे व पुराने जमाने के बाब कट जैसे थे। उसने कहा कि मेरे बालों का स्टाइल सम्राट पृथ्वीराज जैसे हैं, इसलिये उसने मेरा नाम पृथ्वीराज सुझाया। बाऊ जी को पसंद आ गया और अपने राम पृथ्वीराज हो गये। स्कूल में भी इसी नाम से भर्ती किया गया। पहली बार तीसरी कक्षा में नाम परिवर्तन हुआ और दूसरी बार कनाडा जाकर जिसके बारे में समय आने पर बताऊँगा।

कोटा में आर्य समाज रोड पर हमारी रेडियो निर्माण, मरम्मत व बिक्री की दुकान थी। पूरे राजस्थान में नाम था उस दुकान का। पहले जीवन रेडियो (मेरे दादा जीवन सिंह जी के नाम पर) व बाद में कृष्णा रेडियो के नाम से जानी जाती थी। कालांतर में एक और दुकान कोटा के ही गुमानपुरा में स्थापित की जिसका नाम शिवा रेडियो (मेरी दादी शिव दई जी के नाम पर) खोली लेकिन बाद में बंद कर दी। कृष्णा रेडियो पर हमारे खुद के ब्रैंड व माडल के रेडियो निर्मित किये जाते थे जिनमें से दो के नाम मुझे याद है – १. National Jeevan Radio व २. KRP (Krishna Radio Product) जिसे पंजाबी में शटल्ली मित्र “क्यों रोंदे पए हो” कहकर सम्मान देते थे। बाकी दो प्राडक्ट्स के नाम याद नहीं हैं। मुझे इतना ज्ञात है कि हमारे बनाये रेडियो पूरे राजस्थान में बिकते थे। मुझे याद है जयपुर में एक बार मैं और मेरे बाऊजी घर के बाहर किसी काम से खड़े थे। वहाँ से कोई शख्स गुजरा और अचानक ठिठक कर रुक गया। हम दोनों ही समझ नहीं पाये कि यह कौन है। वह बाऊ जी से बोला – आप मुझे नहीं पहचानते होंगे लेकिन मैं आपको जानता हूँ। आपकी कोटा में रेडियो की दुकान थी और मैंने आपसे एक रेडियो खरीदा था जो मैं आज भी सुनता हूँ। फिर हमने उसे घर के अंदर बुलाया और चाय पिला कर विदा किया।

मेरे पिता जी इंजीनियर थे। १९३२ में उन्होंने दयालबाग इंजीनियरिंग कालेज, आगरा से फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट डिविज़न में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग पास की थी। मुझे उनके बताये किस्सों में एक बात याद आती है जो जीवन भर मेरे हृदय पर बैठी है। तब वे पंजाब, (अब के पाकिस्तान वाले पंजाब) में रहते थे। १९२७-२८ की बात है। वे पंजाब से दयालबाग, आगरा इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन के लिये इंटरव्यू देने आये। इंटरव्यू के दौरान पता चला कि वे एड्मिशन हेतु ओवर एज़ हैं। कालेज के प्रिंसिपल ने उनसे कहा -Gentleman, I am sorry. You are good for admission but you are over age. I can not accept your admission. उसी वक्त मेरे पिताजी ने बड़े विश्वास भरे लहजे में उनसे पूछा – इस साल नहीं तो क्या मैं अगले साल आ सकता हूँ?

वह पिताजी की बात सुन कर दंग रह गया कि इस साल ओवर एज हूँ तो अगले साल आ जाता हूँ। वह इस बात से बहुत इम्प्रेस हो गया। उस समय तो एडमिशन नहीं हो सका लेकिन ६ महीने बाद उसने पिताजी को टेलीग्राम देकर बुलवाया और एड्मिशन दे दिया। ऐसा इसलिये हुआ कि एक लड़का कालेज छोड़कर चला गया था।

पिताजी पढ़ने में बहुत तेज थे और पहलवान टाइप के थे। उनके एक दोस्त थे गुरु दयाल सरन टंडन। मेरे पिताजी और उनकी पक्की दोस्ती हो गयी| पिताजी कसरती बदन के मालिक थे। पिता जी बताते थे कि वो एक टाइम में ३२ रोटियां खा जाते थे। उन दोनों की दोस्ती कालांतर में और पक्की हो गयी। पिताजी की भी शादी हुई और उनके दोस्त की भी और दोनों के बीच यह करार हुआ कि दोनों में से किसी की भी लड़की हुई और किसी का भी लड़का हुआ तो दोनों की शादी कर देंगे। पिताजी के सात बेटे व एक बिटिया हुई और उनके मित्र की तीन बेटियां व एक बेटा हुआ। आप यक़ीन नहीं मानेंगे कि दोनों दोस्तों ने अपना वचन निभाया और नतीजतन उनके मित्र की दो बेटियां हमारे परिवार की बहुएं हैं यानि मेरी भाभियां हैं।

उस समय लोग अपनी जुबान के कितने पक्के होते थे, यह उसका एक ठोस उदाहरण है।                                                                           क्रमश:     ५.

 

 

एक एकम् एक                  - निरंतर 5

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

तो मैं बता रहा था कि कोटा में हमारी रेडियो की दुकान बाऊजी के संचालन में थी। चार बड़े भाइयों व हम तीनों छोटों यानि सभी का दुकान पर जाना अनिवार्य होता था। चारों बड़े भाइयों का काम नये रेडियो तैयार करना था और हम तीन छोटों का दुकान की सफ़ाई। मुझे अच्छी तरह याद है मैं तब पहली कक्षा में पढ़ता था व मुझसे बड़े भाई तीसरी कक्षा में। हम दोनों का काम था स्कूल जाने से पहले दुकान खोलो और दुकान पर झाड़ू मारकर सफ़ाई करो और गमछे से सारी दुकान साफ़ करो, फिर स्कूल जाओ। तीसरे का काम था सब टूल्स सैट करो व चारों भाइयों के लिये वर्क स्टेशन तैयार करके फिर स्कूल जाओ। हम तीनों एक ही स्कूल “अपर प्राइमरी धानमंडी स्कूल, कोटा” में पढ़ते थे। अनुशासन इतना सख्त था कि चारों बड़े भाइयों को प्रतिदिन स्कूल से सीधा दुकान पर जाना पड़ता था, एक रेडियो पूरा तैयार कर के घर ले जाकर मां को सुनाना पड़ता था। उस समय सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम ’बिनाका गीत माला’ था जो रेडियो सीलोन (श्री लंका) की प्रस्तुति हुआ करती थी। अगर वह सही ढंग से बज गया तो रेडियो पास नहीं तो दूसरे दिन उसे ठीक करके दुबारा लाओ तब जाकर बात बनती थी।

आगे की बात बाद में, पहले एक झकझोरने बात, जब मैं दूसरी कक्षा में था। हम क्लास में टाट-पट्टी पर बैठा करते थे। एक दिन मैं स्कूल नहीं गया था। उस दिन क्लास में आलती-पालती मारकर बैठना सिखाया गया था। उस दिन बाकी सब बच्चे आलती-पालती मारकर बैठे थे और मैं अकेला टांगे मोड़ कर बैठा था। अध्यापक मेरे पास आया और उसने मुझे गलत ढ़ंग से बैठे देखा तो मेरे को अपने जूते से ठोकर मार दी और बोला दिखाई नहीं देता बाकी सब कैसे बैठे हैं। मैं उस जूते की मार और दर्द और उससे भी अधिक उस अपमान को उस वक्त तो सह गया लेकिन बात दिल में कहीं गहरे उतर गई।

उन मास्टर जी का रेडियो भी हमारी ही दुकान पर मरम्मत के लिये आया हुआ था। मुझे यह बात मालूम थी। दूसरे दिन मैं सफ़ाई करने के लिये दुकान पर गया, एक कटर हाथ में लिया और उसके रेडियो की सारी वायरिंग काट दी, ठीक वैसे ही जैसे चूहे काटते हैं।

दो-तीन दिन बाद वह मास्टर जी अपना रेडियो लेने आये तो मेरे पिताजी ने उन्हें फटकार लगाई कि घर में चूहे हैं तो उन्हें भगाने का इंतजाम करो, ये देखो, सारी की सारी तारें, रेडियो की पूरी वायरिंग कटी पड़ी हैं। पिताजी को क्या मालूम कि तारें किस चूहे ने काटी हैं । यह बात १९५६-५७ की है और तब मुझे याद है उसे उस जमाने में रेडियो की मरम्मत के १५० रुपये देने पड़े थे और मैं खुश था कि मुझे बूट से ठोकर मारने का बदला मिल गया था। बदला चाहे मैंने ले लिया लेकिन बूट की वह ठोकर का वह अपमान मुझे आज भी याद है।

कोटा में  मकर संक्रांति के दिन गुल्ली-डंडा खेला जाता है। लार्ज स्केल पर होता था यह खेल। डंडे व गुल्लियां हम बहुत दिन पहले से ही इकट्ठी करनी शुरू कर देते थे। पूरा दिन खेलकर शाम को जब घर आते तो मम्मी से अलग डांट पड़ती और पिताजी से अलग। अरे, डांटना है तो मिलकर डांट लो यार, अलग-अलग में तो मामला डबल हो जाता था।

आज मैं अपने १० वर्षीय पोते को कनाडा में स्कींग, स्किटिंग, जिम्नास्टिक्स, ताई क्वांडो, और आइस हाकी खेलते देखता हूँ तो अपना बचपन याद आ जाता है जब खेलने को सतोलिया, गुल्ली-डंडा, कंचे, लट्टू, अष्टा चंगा पो, पतंग और पहिया दौड़ाना ही खेल थे और विशेष बात यह कि सब के सब एकदम मुफ़्त।

वो जमाना और था, ये जमाना और है,

वो फ़साना और था, ये फ़साना और है।

                                          क्रमश: ……….६

  

 

 एक एकम् एक                  - निरंतर 6

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

दुकान पर काम करते, खेलते और स्कूल में पढ़ते क्लासें आगे से आगे बढ़ती जा रही थीं। दिन कट रहे थे। तीसरी कक्षा तक पहँचते-पहुँचते दो स्कूल बदल गये। दुकान पर जिम्मेदारियां बढ़ गईं। खेल-कूद तो बढ़ने ही थे।

कोटा में पतंगें पूरी गर्मियों की छुट्टियों में उड़ाई जाती हैं। पतंग उड़ाने का शौक बढ़ गया। गली से ही मांझे की चरखी तो सीधी छत पर फैंक देते थे पर पतंगें छत तक लेकर जाना बहुत ही चुनौती से परिपूर्ण होता था। जहां से घर की सीढ़ियां प्रारंभ होती थीं, ठीक सामने बाऊ जी का कमरा था। वो हमें तो छत पर जाते तो देख लेते थे लेकिन हमारी बुशर्ट के अंदर छिपाई हुई पतंग को नहीं देख पाते थे। बस, एक बार छत पर पहुंच गये तो ये काटा, वो काटा।

मेरे से बड़े भाई को एक बार मां ने छत पर जाते देख लिया। सामने रसोई थी। वहीं से उन्होंने निशाना लगा कर लकड़ी की कड़छी भाई पर फैंकी। कड़छी उनकी पीठ पर ठीक निशाने पर जाकर लगी और कड़छी के दो टुकड़े हो गये। वो टूटी कड़छी बहुत दिनों तक डराती रही लेकिन क्या करते, पतंग बाजी-खुदा राजी, पतंग टूटा-खु़दा रूठा। हम मां का गुस्सा झेलते-झेलते पतंगबाजी में महारत हासिल करते रहे।

पतंग का शौक इतना चर्रा गया कि दिन-रात पतंग ही पतंग नज़र आने लगी। एक बार बड़े भाइयों ने प्रोग्राम बनाया कि मांझा भी स्वयं सूता जाय। तो काम शुरू हो गया। बाजार से धागे के गट्टे खरीद कर लाये गये, कांच पीसा गया, रंग घोला गया, गोंद में सब मिला कर मंझा तैयार किया गया। जब बहुत लंबा मांझा तैयार हो गया तो बड़ी सी चरखी पर उसे लपेट कर चरखी तैयार कर ली गई। अब बारी आई पतंग उड़ाने की। एक बड़ी सी पतंग उस मांझे से बांध दी गई और पतंग उड़ चली बादलों के पार। मांझे की तो चरखी में कोई कमी थी ही नहीं। सबने पतंग उड़ाई लेकिन यह क्या हुआ ! अचानक पतंग चरखी का दामन छोड़ कर उन्मुक्त हवा में उड़ गई। दर असल हुआ यों कि जब चरखी पर मांझा लिपेटना शुरू किया था तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था कि उसे प्रारंभ में चरखी पर गिठान लगाकर लपेटना है। वैसे ही लपेट दिया और नतीजा, हमारी सप्ताह भर की मेहनत आधे घंटे में हवा के साथ काफ़ूर हो गई। हम देखते रहे और हमारी पतंग मांझे को साथ लिये दूर बहुत दूर जाती दिखाई देती रही। दूसरे दिन पता चला कि हमारी पतंग हमारे घर से आठ किलोमीटर दूर कोटा रेलवे स्टेशन के बाहर जाकर गिरी जिसके साथ इतनी लंबी डोर थी कि कई पतंग प्रेमियों ने वह डोर लूटी।

कोटा में मैंने मुगल-ए-आज़म, चौदहवीं का चांद, काला आदमी, कोहेनूर, लव इन शिमला आदि फ़िल्में देखी थीं। लेकिन इससे पहले जिंदगी में पहली फ़िल्म ’साधना’ जयपुर के राम प्रकाश पिक्चर हाल में देखी।

 स्कूल जाते थे तो उस वक्त कौन बस लेने आती थी। पैदल ही जाना होता था। प्रारंभिक स्कूल तो फिर भी घर के पास था बाद में लाडपुरा मिडिल स्कूल, कोटा में भर्ती हुए। जी हाँ, उस वक्त तो भर्ती ही हुआ करते थे, एडमिशन तो अब होने लगे हैं। हम गर्व से बताते हैं कि हम ग्यारहवीं कक्षा तक हिंदी मीडियम में ही पढ़े हैं और कई बार तो मैं मजाक में कहता हूँ कि मैंने एम. ए. इंगलिश भी हिंदी मीडियम से की है।

एक विशेष बात। हम दयाल बाग, आगरा में स्थित राधास्वामी धर्म के मानने वाले हैं। पहले यह प्रथा थी कि लगभग सभी सत्संगियों के बच्चों के नाम हमारे गुरू महाराज ही रखते थे। मुझे भी बाऊ जी दयालबाग ले गये और हुजूर से दरख्वास्त की मेरा नाम रखने के लिये। गुरू महाराज ने ही मेरा नाम हजूर सरन रखा और इस प्रकार मेरा नाम पृथ्वी राज से हजूर सरन हो गया और लगभग ५० साल तक जीवन इसी नाम से चलता रहा। आगे कनाडा में रहते हुए एक बार पुन: नाम में एक परिवर्तन आया जिसका जिक्र आगे जाकर करूँगा। हमारे पिता जी, अपने नाम जगजीत सिंह के साथ घई लगाते थे अतएव घई हमारा पारिवारिक नाम था लेकिन हमारे सबसे बड़े भाई साहब ने नाम की प्रथा में परिवर्तन कर घई की जगह सत्संगी लगा लिया। अब उनका नाम प्रेम दयाल सिंह सत्संगी हो गया। उन्हीं के नाम की प्रथा का अनुसरण करते हुए मेरा नाम भी हजूर सरन सत्संगी (एच. एस. सत्संगी) हो गया।

क्रमश:      …..-७



एक एकम् एक                             - निरंतर 7

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

तीसरी कक्षा में एक स्कूल बदला जिसका नाम अब याद नहीं है। चौथी कक्षा में मैं और मेरे से बड़े भाई लाडपुरा मिडिल स्कूल में दाखिल हुए। वह घर से काफ़ी दूर था। लगभग आधा घंटा लग जाता था स्कूल पहुँचते-पहुँचते। रास्ते में एक बहुत बड़ा बड़ का पेड़ पड़ता था जिसकी लंबी-लंबी जड़ें लटकती रहती थीं। हम सड़क पर से उन जड़ों को पकड़ते और लगभग २० फ़ुट गहरी खाई में कूद जाते। सभी दोस्तों का यह रोज का कारनामा था। जहाँ वह सूखी खाई खत्म होती, पुराने से एक किले की दीवार थी। वहाँ चढ़ते, वहीं स्कूल था, बस पहुँच जाते। बड़ी एडवेंचरस जर्नी होती थी स्कूल की।

हाँ एक हादसा याद आया। मेरे से बड़े भाई को मम्मी ने एक नई जैकेट सिल के पहनाई। उनको और उनके दोस्तों को पता नहीं क्या सूझी, स्कूल के ठीक सामने सड़क पार करके एक तालाब था। पता नहीं कौन सी धुन में आकर लड़कों ने अपनी-अपनी चीजें तालाब में फैंकनी शुरू कर दीं। किसी ने स्याही की दवात फैंकी तो किसी ने स्वैटर, किसी ने किताब फैंकी तो किसी ने अपनी कापी, मेरे बड़े भाई को न जाने क्या सूझा, उन्होंने अपनी जैकेट जो उसी दिन मम्मी ने सिल कर पहनाई थी, तालाब में फैंक दी। यह सारी बात उनके एक दोस्त ने मुझे बताई थी।

अब फैंक तो दी लेकिन उन्हें डर लगा कि घर जाऊँगा तो अच्छी-खासी पिटाई होगी, इसलिये वो घर आये ही नहीं, स्कूल से सीधे अपने दोस्त के घर चले गये। स्कूल बंद हुए लगभग ३-४ घंटे हो गये तो घर में सबको चिंता हुई कि बच्चा कहाँ गया। हम सब पहले स्कूल गये, वहाँ कोई नहीं था। फिर मैंने बताया कि भाई तालाब के पास खेलने गये थे ऐसा उनके एक दोस्त ने बताया था तो सब तालाब के पास गये। ध्यान से देखा तो बड़े भाई की जैकेट तैरती हुई दिखाई दी। माँ का तो यह देखते ही बुरा हाल हो गया। न जाने कितनी शंकाओं ने हमें घेर लिया। सब सोचने लगे कि यह क्या हुआ, अब क्या करें। अचानक मुझे ध्यान आया कि क्यों न उनके दोस्तों से पता किया जाय। सबसे पहले हम उनके सबसे पक्के दोस्त के घर गये और जाकर देखा तो दोनों सतोलिया खेल रहे थे। भाई की पिटाई तो होनी थी, सो हुई। सारी कहानी सुनी तो उन्होंने बताया कि सब दोस्त पानी में अपनी-अपनी चीजें फैंक रहे थे, मैंने भी फैंक दी। फिर डर लगा कि पिटाई होगी इसलिये घर नहीं आया। बचपन सचमुच बहुत भोला होता है।

मेरे बचपन के दोस्तों के नाम याद आ रहे हैं। काश वो मेरी यह जीवनी पढ़ें तो पहचान पायें। अर्जुन (जो मुझे कई वर्ष बाद मेरे कोटा जाने पर मिला), जवाहर लाल, विनय जैन व अन्य। पतंग बाजी के अतिरिक्त लट्टू चलाना, कंचे खेलना, सतोलिया, पहिया दौड़ाना आदि कितने ही फ़्री फ़ोकट के खेल थे जो हम दोस्तों के साथ खेला करते थे। यही सब करते पांचवीं कक्षा तक पास करली।

अब तक परिवार में कई नई परिस्थितियां उत्पन्न होने लगीं। १९५३ में बहन की शादी हुई। १९५५ में सबसे बड़े भाई की भी शादी हो गई। १९५७ में बड़े भाई के बेटी यानि मेरी भतीजी हुई जिसके साथ मुझे खेलना बहुत अच्छा लगता था। अब वो अपने परिवार के साथ इंदौर, मध्य प्रदेश में रहती है। दुकान पहले खूब चलती थी लेकिन कालांतर में लगभग १९५८ के बाद पारिवारिक परिस्थितियां बदल गईं।

सबसे बड़े भाई प्रेम दयाल सिंह अपनी पत्नी यानि मेरी भाभी जी के साथ मुम्बई चले गये। वो एक उपन्यासकार भी थे और बालीवुड में अपनी किस्मत आजमाने गये थे। मुझे याद है वो अपनी स्वरचित कहानी ’वीरा डाकू सीरीज़’ सुनाते रहते थे। मुम्बई में उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली लेकिन उनके चले जाने से दुकान का काम मंदा पड़ने लग गया। हालांकि हम छ: भाई अब भी थे लेकिन दुकान पर तो एक-एक व्यक्ति का असर पड़ता है। इस बीच दूसरे नंबर के भाई गुरमीत सिंह ने नौकरी तलाश करनी प्रारंभ कर दी।

एक और कोशिश के तहत कोटा रेलवे स्टेशन के पास एक दुकान ली गई कि शायद वहां काम चल जाय लेकिन बात बनी नहीं। पहले जब हमारी दुकान का काम बहुत अच्छे से चल रहा था, हमारा व्यापार व हमारा परिवार इतना जाना-पहचाना हो गया था कि जिस गली में हम रहते थे, उसका नाम ’रेडियो वालों की गली’ पड़ गया था।  

क्रमश:      …..-8


 

 

 

एक एकम् एक                             - निरंतर ८

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा 

        हाँ, एक बात बताता हूँ। आप इस पर कितना यक़ीन करते हैं यह आपकी सोच पर निर्भर करता है। शायद मैं भी इस बात पर विश्वास नहीं करता लेकिन …। यह बात मेरे भाई गुरमीत सिंह जी ने अनेकों  बार स्वयं बताई है तो सोचना तो पड़ता है। एक बार वे दुकान पर अकेले काम कर रहे थे, स्टूल पर बैठे रेडियो बना रहे थे। अचानक उन्हें जोरदार बिजली का झटका लगा और वे स्टूल समेत पीठ के बल जमीन पर गिर पड़े। अब क्या हुआ यह उन्हीं के शब्दों में बताता हूँ। उन्होंने बताया – “मैं बिजली के झटके से जमीन पर गिर पड़ा। मैंने देखा कि कहीं से सफ़ेद लिबास में दो लोग मुझे लेने आये और अपने साथ ले गये। मुझे साफ़ नज़र आ रहा था कि मेरा शरीर जमीन पर गिरा पड़ा था। कुछ ही पलों में वे मुझे अपने गंतव्य पर ले गये और यों समझिये सफ़ेद लिबास में एक अधिकारी (धर्मराज) के सामने मुझे पेश किया। अधिकारी ने नज़रें उठा कर मेरी तरफ़ देखा और बोले – ये तुम गलत आदमी ले आये हो, इसे तुरंत वापिस छोड़कर आओ। वे दोनों मुझे लेकर वापिस आ गये। उसी क्षण मेरे शरीर में हरकत हुई, मेरा पैर हिला जिसके कारण बिजली में लगा हुआ प्लग बाहर निकल गया और मेरी आँखें खुल गईं।“

(जैसा कि मैंने पहले भी कहा, इस बात को मानना या न मानना अपनी-अपनी सोच है पर बात बताने लायक थी, इसलिये अपने-आपको बताने से रोक नहीं पाया। हाँ, इस प्रकरण के बारे में आपके क्या विचार है, कमेंट कीजियेगा। शायद अन्य लोगों के लिये यह जानकारी रुचिकर होगी।)

लिखते-लिखते एक बात याद आ गई। आर्य समाज रोड पर जहाँ हमारी दुकान थी, उसके बिल्कुल सामने वाली गली में एक डाक्टर थे। कोई भी स्वास्थ्य समस्या होने पर हमारा सारा परिवार उन्हीं से ही मश्विरा करता था और इलाज करवाता था। बचपन में मुझे स्वास्थ्य संबंधी कुछ परेशानी आई, शायद बुखार नहीं उतर रहा था। उन्होंने मुझे दो बार इंजेक्शन लगवा दिये फिर भी कोई फ़ायदा न हुआ। उन्होंने मुझे टीबी हास्पिटल रैफ़र कर दिया। वहाँ मैं अपनी मम्मी के साथ रिसेप्शन पर गया भर्ती होने के लिये लेकिन जैसे ही हमने कमरे में प्रवेश किया, एक कंपाउंडर ने वहीं हमें रोक दिया। हम रुक गये लेकिन हैरान थे कि ऐसा क्यों किया। थोड़ी देर बाद अपना काम निबटाकर वह कंपाउंडर बाहर आया और उसने कहा कि यहां के वातावरण में बच्चा आयेगा तो उसे कुछ नहीं है तो भी टी बी हो जायगी। मुझे ठीक से चैक करके बोला कि जाओ, इसे कुछ नहीं है। विश्वास दिलाने के लिये उसने मम्मी को कहा कि मैं आपके घर पर आऊँगा और इसके साथ इसी की कटोरी में खीर खाउंगा। वास्तव में कुछ दिन बाद वह घर आया, माता जी ने खीर बनायी और हम दोनों ने मिलकर खायी। न जाने क्या चमत्कार था कि मेरी तबीयत में अपने आप ही सुधार आता गया और मैं पूर्णत: स्वस्थ हो गया।

इसी बीच एक घटना का जिक्र करना चाहूँगा। जब मेरे पिता व सारा परिवार पाकिस्तान से आकर जयपुर में बसे, एक परिवार के साथ साझे में बाल्टियों का कारखाना खोला। सरकार से लोन लेकर काम शुरू हुआ। उस परिवार के कुछ सदस्य उस व्यापार के ओहदेदार बन गये और बाऊ जी को सचिव बना दिया। बाऊजी बहुत सीधे थे, वे उस परिवार की चालाकी नहीं समझ सके। खर्च उस परिवार के लोग करते रहे और रसीदों पर बाऊजी के दस्तखत होते रहे। फिर सरकार ने लोन उतारने के लिये तकाजा किया लेकिन तब तक वह परिवार सारा पैसा हजम कर चुका था। मुकद्दमेबाजी शुरू हो गई। कोटा में ही कोर्ट की तारीख थी और मुझे आज तक याद है, एक तरफ़ तो मुकद्दमा चल रहा था, दूसरी तरफ़ उस परिवार को हमारे घर पर खाने के लिये निमंत्रित किया गया था। जो बात मैं बताना चाहता हूँ मेरी माँ उन लोगों से घूंघट निकालती थीं और उनके घूंघट वाली छवि आजतक मेरे मस्तिष्क में बसी हुई है। कहाँ एक तरफ़ आपस में मुकद्दमेबाजी और कहाँ खाने पर बुलवाना और कहां घूंघट जैसा आदर। धन्य है भारतीय संस्कृति, अद्भुत है। अंतत: वह मुकद्दमा मेरे पिता जी जीत गये और उस परिवार से सरकार ने हजारों रुपये के लोन की वसूली की।

 

क्रमश:      …..-९

 

 

एक एकम् एक                             - निरंतर   ९

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

१९५९ में मेरे दूसरे नंबर के भाई गुरमीत सिंह जी की लाडनूं (राजस्थान) के ’जोहरी मल्टीपर्पज़ हायर सैकंडरी स्कूल” में इलेक्ट्रोनिक्स इन्स्ट्रुक्टर के पद पर नौकरी लग गयी। १९६० में मैं, मुझसे बड़े भाई गुरूदयाल सिंह, हमारे पिता जी, भुवा जी, हम चारों लाडनूं चले गये। भुवाजी का जिक्र आया है तो उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व की बात करना भी समिचीन रहेगी। भुवाजी अपने निकटवर्ती दायरे में सदैव ही एक आदरणीय महिला के रूप में रहीं। भुवाजी लगभग १३ वर्ष की आयु में ही विधवा हो गयी थीं। ८४ वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। पूरा जीवन उन्होंने हमारे परिवार में ही व्यतीत किया। मैंने स्वयं जाना है कि वे जब तक कोटा में रहीं, कोटा शहर में हमारे जानने वालों में भुवाजी के रूप में ही जानी जाती रहीं। लाडनूं में रहीं तो वहाँ, जयपुर में रहीं तो वहाँ और आगरा में रहीं तो वहाँ भी सब जानने वाले उन्होंने भुवाजी कहकर ही संबोधित करते रहे।

तो लाडनूं में हम दोनों भाइयों का जोहरी मल्टीपर्पज़ स्कूल में एडमिशन करवा दिया गया। पिताजी की नौकरी फ़ालना, राजस्थान में लग गई जो लाडनूं से बहुत अधिक दूर नहीं था और वे फ़ालना चले गये।

एक बात याद आ रही है। जब हम पहली बार लाडनूं गये और स्टेशन पर उतरे, बाहर तांगे खड़े थे। हमारे लिये आश्चर्य की बात यह थी कि कोटा और जयपुर में तो हमने जो तांगे देखे थे उनमें लकड़ी पहिये लगे होते थे, यहाँ के तांगों में टायर लगे हुए थे। बाद में समझ में आया कि लाडनूं में रेत बहुत है इसलिये टायर लगे होते हैं। लाडनूं थार मरुस्थल में पड़ता है। खैर, हमने सामान रखा, तांगा चल पड़ा। रास्ते में बहुत बड़े-बड़े मकान देखे। वहाँ मुख्यत: सेठों की हवेलियां हैं। टांगे के चलते-चलते एक मकान आया, बहुत खूबसूरत, कोठी की मानिंद, एकदम आकर्षक, अचानक मन में विचार आया कि काश हम इसी मकान में रहते। तब तक तांगा अगले मकान तक पहुँच चुका था। उसी वक्त पिताजी ने तांगे वाले को रोका और कहा, भैया, आगे निकल आये हो, पीछे वाला मकान है। अब उसने तांगा मोड़ कर पीछे किया और हम उसी मकान के सामने रुके जिसके लिये एक क्षण पहले मेरे मन में विचार कौंधा था कि काश, हम इस मकान में रहते होते। इस अद्भुत संयोग को मैं पूरी जि़ंदगी नहीं भूला और अब आप भी जान गये।

छठी, सातवीं और आठवीं की पढ़ाई मैंने लाडनूं में ही की। वहाँ मेरे भाई साहब की बहुत इज्जत थी। लाडनूं के लोग उन्हें रेडियो मास्टर साहब कहकर बुलाते थे। मुझे याद है एक बार हमारा प्रोग्राम पिक्चर देखने का बना। शायद ’बरसात की रात’ पिक्चर थी। जिस समय पिक्चर हाल में पिक्चर शुरू होने का टाइम था तब हमारा प्रोग्राम बना। भाई साहब ने उसी समय पिक्चर हाल के मैनेजर को फ़ोन किया कि हम पिक्चर देखने आ रहे हैं, ४ सीट रखवा देना। उसने कहा जी आ जाइये। उसने १५-२० मिनट इंतजार किया और पिक्चर तभी शुरू की जब हम पहुँच गये। लाडनूं में मैंने इसके अतिरिक्त संपूर्ण रामायण व एक-दो और फ़िल्में देखीं।

हम जब स्कूल जाते थे तो रास्ते में लोग कहते थे रेडियो माड़साब का भाई जा रहा है। बहुत अच्छा लगता था। इसी बीच तीन और भाई गुरुप्रेम सिंह जी, स्वामी दयाल जी व साहिब सिंह जी भी कोटा से लाडनूं आ गये और लाडनूं के निकट सुजान गढ़ में रेडियो के साथ-साथ फ़ोटोग्राफ़ी का काम भी करने लगे। तबतक ट्रांज़िस्टर भी बाजार में आने लगे थे और रेडियो का व्यापार मंदा पड़ने लगा था।

एक बात बताता हूँ। यह वो घटना थी जिसने मेरे अंदर छिपे साहित्यकार को जग में उजागर किया। यह प्रकरण तब का है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। स्कूल में बाल सभा थी। सभी बच्चों को कुछ न कुछ सुनाना था। मैंने सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ’अर्चना के इन सुरों में एक सुर मेरा मिला लो’ सुनाई। कविता समाप्त हुई तो पीछे बैठे एक अध्यापक ने दूसरे से पूछा, यह कविता इसने लिखी है? उसने उसे बताया कि नहीं, इसके कोर्स की किताब में है। मैंने सुन लिया। तालियां तो बजीं लेकिन मुझे न जाने क्यों यह सालने लगा कि मुझे मेरी अपनी लिखी कविता सुनानी चाहिये थी। फिर घर आ कर दो-दो लाइनें लिख कर कविता लिखने की प्रेक्टिस करने लगा।

मेरी साहित्य यात्रा वास्तविक रूप से लाडनूं से ही प्रारंभ हुई। वहीं मैंने अपने जीवन में पहली कहानी लिखी। एक मजेदार बात बताऊँ। मेरे जीवन की पहली कहानी एक धोबी और उसकी बेटी की कहानी थी। लगभग आधी कहानी लिख ली तो एक जगह ऐसा उलझा कि समझ में नहीं आया कि कहानी आगे कैसे बढ़े। मुझे आज तक याद है कि दर असल कहानी में धोबी की बेटी नदी में कपड़े धोने गयी थी, वह नाव में कपड़े फैला रही थी कि अचानक जोरदार तूफ़ान आ गया, मुसलाधार बारिश होने लगी और नाव जिसमें वह कपड़े फैला रही थी, किनारे से दूर जाने लगी। बेटी डर गयी लेकिन अब पिताजी को मदद के लिये  कैसे बुलाये। काश उस वक्त सैलफ़ोन होते। अब यहाँ मेरा बचपन का अनुभव काम में आया। मम्मी जी ने छुटपन में बहुत सी कहानियां सुनाई थीं। उनमें कभी-कभी आसमान से आकाशवाणी हुआ करती थी। सो मैंने भी वही ट्रिक अपनाई। आकाशवाणी करवायी और धोबी को संदेश दिलवाया कि उसकी बेटी नाव में बह रही है। कहानी में पुन: ऐसा ही एक और प्रकरण आया। यक़ीन मानिये, एक कहानी को पूरा करने के चक्कर में दो बार आकाशवाणी करवानी पड़ी। आखिरकार कहानी पूरी हुई और बिना किसी के पढ़े ही शहीद हो गयी।

क्रमश:      …..-१०

 

 

एक एकम् एक                             - निरंतर   १०

मेरे जीवन की कहानी – मेरी जुबानी

सरन घई, संस्थापक-अध्यक्ष, विश्व हिंदी संस्थान, कनाडा

 

परिवार में अब तक कोटा में सिर्फ़ सबसे बड़े भाई रह गये थे। मां और बाऊजी जयपुर आ गये। दुकान बंद कर, सारा सामान समेट कर बड़े भाई भी सपत्नीक व बेटी के साथ आगरा चले गये जहां उनकी नौकरी की व्यवस्था हो गयी। बाद में उनकी हिंदुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड में नौकरी लग गयी। कुछ वर्ष बाद वे सिंगापुर एयरलाइन्स में नौकरी करने लगे और सपरिवार सिंगापुर चले गये। उनकी तीन बेटियां (अनिता, संगीता व कविता) और एक बेटा (राजेश) है।

सिंगापुर में बच्चों की भाषा वैभिन्य के कारण ठीक से पढ़ाई नहीं हो पा रही थी। इसलिये उन्होंने निश्चय किया कि पत्नी व परिवार को दिल्ली सैटल कर देते हैं और वे सिंगापुर से आते रहेंगे। उन्होंने दिल्ली मकान किराये पर ले लिये, बच्चों के स्कूल में दाखिले करवा दिये। अब उन्होंने वापिस सिंगापुर जाना था तो मन में आया कि क्यों न परिवार के लिये राशन की व्यवस्था भी कर दें। वे राशन की दुकान पर गये और राशन का इंतजाम पूरा कर दिया। वहीं दुकान पर ही वे राशन के रजिस्टर पर दस्तखत कर रहे थे कि अचानक वहीं उन्हें ब्रेन हैमरेज या शायद हार्ट अटैक हुआ और वहीं उनका निधन हो गया। शायद परिवार से अलग रहने की सोच को वो झेल नहीं पाये।

हम लाडनूं में ही पढ़ते रहे। वहीं स्कूल में बालीबाल व बैडमिंटन खेलना सीखा। स्कूल के अध्यापक का भाई होने के कारण अन्य सभी अध्यापक भी पूरा सम्मान देते थे। पढ़ाई में मैं सामान्य से कुछ ऊँचे स्तर पर था यों समझो गुड सैकिंड डिविज़न, इसलिये भाई साहब को व अन्य अध्यापकों को हम दोनों भाइयों की तरफ़ से कोई शिकायत नहीं होती थी। वहाँ मेरे मित्र बने प्रहलाद और भाग चंद बड़जात्या।

खैर आठवीं पास करके हम जयपुर आ गये और हमारा नौवीं में आदर्श नगर, जयपुर के आदर्श विद्या मंदिर स्कूल में दाखिला हो गया। यह स्कूल पढ़ाई व अनुशासन दोनों क्षेत्रों में बहुत सख्त था। मैं यहाँ मध्यम दर्जे का विद्यार्थी रहा। हाँ, सैकंडरी के बोर्ड की परीक्षा में मेरी गुड सैकंड डिविज़न के साथ-साथ गणित व अनिवार्य विषय अंग्रेजी दोनों में डिस्टिंक्शन मार्क्स आये जिससे थोड़ा रुतबा बढ़ गया। कुछ नम्बरों से फ़र्स्ट डिविज़न रह गयी पर छड्डो जी, की फ़रक पैंदा है।

तो पतंग उड़ाते, कैरम खेलते जिंदगी चलने लगी, अपने राम ग्यारहवीं कक्षा तक पहुँच गये। एक बार की बात है और मुझे वह बात अभी तक याद है। मेरे बायें हाथ की रिंग फ़िंगर का नाखून टूट गया। स्कूल से छुट्टी लेकर रोता हुआ मैं घर आया। घर आकर भी दर्द के मारे मैं रोता रहा। मम्मी ने बहुत से घरेलू उपचार किये लेकिन दर्द ठीक न हुआ। इसी समय एक इश्वरीय चमत्कार हुआ। अचानक एक साधू ने आटा मांगने के लिये आवाज दी। मम्मी ने मेरे से कहा कि जा साधू को आटा दे आ। मैंने मना कर दिया कि मेरी अंगुली में बहुत दर्द है, मैं नहीं जाता। मम्मी ने कहा नहीं बेटा, जा आटा देकर आ। आप यक़ीन नहीं मानेंगे मैं आटा लेकर बाहर गया, साधू की झोली में आटा डाला और वापिस  अंदर आया और कमाल, हर्ष मिश्रित आवाज़ में आंख में आंसू भरे हुए ही मां से बोला, मम्मी मेरी अंगुली का दर्द ठीक हो गया। मम्मी ने स्थिति का तत्क्षण आकलन किया और मुझे कहा उस साधू को जल्दी से ढूंढ कर बुला कर ला और  उसे बोलना कि हमारे घर खाना खा कर जाये। मैं बाहर भागा, अगले चौराहे पर ही वह साधू मिल गया, मैंने उससे कहा कि मेरी मम्मी कह रही है कि आप खाना खा कर जाओ। वह बोला अभी तो नहीं, अभी हम हरिद्वार जा रहे हैं, छ: महीने बाद आयेंगे तो खाना खा कर जायेंगे। लगभग छ: महीने बाद सचमुच वह साधु वापिस आया और खाना खा कर गया और उसके बाद कभी नहीं आया।

वर्ष १९६६ में हायर सैकंडरी की प्रेक्टिकल की परीक्षा तो मैंने दे दी लेकिन बोर्ड की लिखित परीक्षा के समय मुझे टाइफ़ाइड हो गया इसलिये उस वर्ष मुझे ड्राप करना पड़ा। मेरे विषय सांइस व मैथ्स थे यानि फ़ीजिक्स, केमिस्ट्री व मैथ्स। प्रेक्टिकल के समय भी परेशानी थी। हमारे विद्यालय के हैड मास्टर स्वामी प्रसाद जी ने मेरी बहुत सहायता की व मेरे लिये लैब खुलवा दी ताकि मैं प्रक्टिकल की प्रेक्टिस कर सकूँ। लिखित परीक्षा के नंबर भी कोई खास नहीं आये लेकिन बाइज्जत पास हो गया। दो वर्ष लगातार टाइफ़ाइड की मार झेलकर शरीर अत्यधिक कमजोर हो गया। इसी बुखार के दौरान मुझे अस्पताल में कंपाउंडर ने आकर पेनिसिलिन का टेस्ट इंजेक्शन लगाया। उसका मेरे शरीर पर इतना विपरीत असर पड़ा कि इंजेक्शन लगने के चंद मिनटों बाद ही ऐसी कंपकंपी छूटी कि मेरा पलंग तक हिल गया। तब उस कंपाउंडर ने मुझे हिदायत दी कि मुझे पेनिसिलिन से एलर्जी है और हिदायत दी कि जीवन में भूल कर भी पेनिसिलिन वाली दवाई मत लेना और पैनिसिलिन का इंजेक्शन मत लगवाना जिसका मैं आज तक पालन कर रहा हूँ।

 

क्रमश:      …..-११




Tuesday, February 7, 2012

काव्योत्सव में “प्रेमपथ-मुक्तिपथ महाकाव्यगीत” का ई-बुक कवर लोकार्पित

दिनांक 4 फ़रवरी, 2012 को कनाडा के ब्रेम्प्टन शहर में फ़्रीडम योगा गुरुकुल प्रांगण में ’विश्व हिंदी संस्थान’ के तत्वावधान में भारत के गणतंत्र दिवस एवम्‍ ऋतुराज बसंत के उपलक्ष्य में एक कवि सम्मेलन ’काव्योत्सव’ का आयोजन किया गया। इस कवि सम्मेलन में कनाडा के जाने-माने कवियों ने काव्यपाठ किया।
कार्यक्रम का प्रारंभन ’विश्व हिंदी संस्थान’ के संस्थापक प्रो. सरन घई द्वारा रचनाधीन “प्रेमपथ-मुक्तिपथ महाकाव्यगीत” जिसे वह एक ई-पुस्तक के रूप में अतिशीघ्र प्रकाशित करने जा रहे हैं , के कवर का विमोचन किया गया। प्रो. घई ने इस महाकाव्यगीत की रूपरेखा बांधते हुए जानकारी दी कि “प्रेमपथ-मुक्तिपथ महाकाव्यगीत” को वे संसारभर में अद्यतन रचित हिंदी भाषा के सबसे बड़े काव्यगीत के रूप में प्रस्तुत करने जा रहे हैं । इस काव्यगीत की प्रमुख विशेषता यह है कि पहली पंक्ति से लेकर अंतिम पंक्ति तक यह एक अटूट, धाराप्रवाह, लयबद्ध काव्यरचना है जिसमें कुल 555 छंद हैं और अंतरे व स्थाई सहित इसमें कुल 3330 लाइनें हैं। वे इस महाकाव्यगीत को मार्च 2012 के प्रथम सप्ताह में एक ई-पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं जिसे संसारभर में कोई भी डाउनलोड करके पढ़ सकता है। शीघ्र ही घर-घर में सुने-देखे-पढ़े जाने योग्य इस महाकाव्यगीत की आडियो सी डी व डीवीडी रिलीज़ करने के साथ-साथ वे इसे एक पुस्तक रूप में प्रकाशित भी करना चाहते हैं और इस सब के लिये उन्होंने सभी से सहयोग देने की गुजरिश की। इस काव्यगीत का विषय व संदेश ’मन-माया-इंसान-परिवार-समाज-रिश्ते-भगवान’ आदि सच्चाइयों को कविता के कलेवर में समेटते हुए संसार में एक पाजिटिव वाइब्रेशन का संप्रेषण करना है।
इस अवसर पर कनाडा के जाने-माने गायक श्री अजय त्यागी ने हारमोनियम के साथ काव्यगीत के कुछ अंशो का सस्वर पठन किया जिनका साथ उनके अनुज व विश्व हिंदी संस्थान के निदेशक श्री संदीप त्यागी, श्री देवेन्द्र मिश्रा व मीनाक्षी कपूर ने दिया। तबले पर संगत निभाई श्री धैर्य कपूर ने और डफ़ पर ताल दी स्वयं प्रो. सरन घई ने।
’विश्व हिंदी संस्थान’ हिंदी भाषा की सेवा व प्रचार-प्रसार में रत गणमान्य साहित्यमनीषियों व समाज सेवकों का समय-समय पर सम्मान करती आई है और इसी कड़ी में इस कार्यक्रम के अंतर्गत इस बार संस्था के सदस्य व कनाडा स्थित जाने-माने वैज्ञानिक कविवर भारतेंदु श्रीवास्तव को उनके हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार व सेवाकार्य को मद्देनजर रखते हुए उन्हें सर्वसम्मति से “आजीवन हिंदी सेवी सम्मान २०१२” (Lifetime Achievement Award 2012) से सम्मानित किया गया। इससे पूर्व २०११ में यह सम्मान हिंदी के प्रति समर्पित व अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर पहचाने जाने वाले समाजसेवी व शिक्षाविद्‍ श्री कैलाश भटनागर को दिया गया था।
श्री भारतेंदु ने ’विश्व हिंदी संस्थान’ की गतिविधियों की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए बताया कि लगभग दो दशाब्दियों पूर्व उन्होंने ’कनाडा में ’हिंदी साहित्य सभा’ की स्थापना की थी। सभा की उसी मशाल में एक और मशाल ’विश्व हिंदी संस्थान’ के रूप में जुड़ गई है। उन्होंने कहा कि उन्हें ’लाइफ़ टाइम एचीवमेंट सम्मान” ग्रहण करते हुए गर्व महसूस हो रहा है और इसका श्रेय वे हिंदी सेवा में रत तमाम साहित्यकारों व कवियों तथा विभिन्न संस्थाओं को देना चाहते हैं जो हिंदी सेवा की अलख जगाए हुए हैं।
इस अवसर पर डा. देवेन्द्र मिश्रा तथा जाने-माने समाजसेवी श्री भगवत शरण श्रीवास्तव ने भारतीय गणतंत्र दिवस व ॠतुराज बसंत की महत्ता व हर प्रवासी भारतीय के जीवन में इन उत्सवों को जीने के प्रति उत्साह का स्वागत व हार्दिक समर्थन किया।
तत्पश्चात कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ जिसमें श्रीमति सरोजिनी जोहर, श्री भगवत शरण श्रीवास्तव, श्रीमति राज कश्यप, डा. देवेन्द्र मिश्रा, श्रीमति सुधा मिश्रा, श्री गोपाल बघेल, डा. भारतेंदु श्रीवास्तव, श्रीमति कॄष्णा वर्मा, श्रीमति आशा बर्मन, श्रीमति सविता अग्रवाल, श्रीमति श्यामा सिंह, श्री मोदी, श्रीमति डिंपल दीक्षित, आचार्य संदीप त्यागी व प्रो. सरन घई ने देशप्रेम व बसंत विषयों पर तरह-तरह के काव्यरंग बिखेरे। कार्यक्रम का संचालन प्रो. सरन घई ने किया।
इस अवसर पर बहुत से कवियों तथा उपस्थित श्रोताओं ने विश्व हिंदी संस्थान की सदस्यता ग्रहण की। धन्यवाद ज्ञापन का भार श्री संदीप त्यागी पर रहा तथा संस्था के अगले कवि सम्मेलन की मुख्य कवियत्री सर्वसम्मति से श्रीमती सरोजिनी जोहर को चुना गया। स्वल्पाहार के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।

Sunday, January 8, 2012

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Monday, December 26, 2011

मुक्तिपथ-प्रेमपथ महाकाव्यागीत

विश्व का सबसे लंबा हिंदी काव्यगीत
मुक्तिपथ-प्रेमपथ महाकाव्यागीत
- प्रो. सरन घई

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१॥

मुक्तिपथ वो मार्ग है जो मुक्ति दिलाता,
माया के बन्धनों से है आजाद कराता,
चौरासी के फन्दे से है इन्सां को बचाता,
भगवान के चरणों में व्यक्ति स्थान है पाता।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥२॥

सुबह उठ के नियम से जो ध्यान है करता,
भगवान के चरनों में नित्य हाजरी भरता,
व्यायाम, प्राणयाम, योग नियम से करता,
ऐसा ही व्यक्ति भवजल के पार उतरता।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥३॥

दिन भर जो जिन्दगी के लिये काम है करता,
औरों के अवगुणों पे कभी ध्यान ना धरता,
लौट के जब आता थका-मांदा सदन को,
भगवान के चरणों में झुका देता बदन को।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥४॥

सोने से पहले ईश से फ़रियाद ये करता,
मैं दास हूँ तेरा प्रभु तू मेरा है भर्त्ता,
दिन भर की मेरी भूलों पे तू ध्यान ना धरना,
जो जो किये हैं पाप उन्हें माफ़ तू करना।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥५॥

तेरा है फ़र्ज अपनी गृहस्थी को चलाना,
परिवार को तमाम दुखों से है बचाना,
ईमान से सबके लिये रोजी है कमाना,
सबको खिला के आखिरी में स्वयम्‍ है खाना।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥६॥

नि:स्वार्थ भाव से सभी का साथ निभाना,
हर दीन को दु:खी को कलेजे से लगाना,
आये जो मांगने तेरे दर पे कभी उसको,
जो बन पड़े देना मगर खाली न लौटाना।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥७॥

जो देते हैं उनके ही वो भंडार है भरता,
खुशियों से मुरादों से उनकी झोलियाँ भरता,
अपनी दया का उनपे सदा हाथ वो रखता,
उन पर सदा माया की वो बरसात है करता।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥८॥

औरों की फ़िक्र जिन के मन में अपनों से ज्यादा,
भगवान उनकी राह की हरते सभी व्याधा,
आती न जिंदगी में कोई बेसबब बाधा,
ऐसे ही सच्चे भक्तों ने भगवान को साधा।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥९॥

उनके लिये संसार है मिट्टी का खिलौना,
आसमान उनका ओढ़ना धरती है बिछौना,
उनको न आलीशान से मकान चाहियें,
दो रोटियाँ, इक वस्त्र ये सामान चाहिये।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१०॥

वो ही हैं मुक्तिमार्ग के अविचल, अडिग पथिक,
उनको न भूख प्यास की परवाह है तनिक,
उनको न चांदी-सोने के उपहार चाहियें,
उनको न घर, जमीन, धन या कार चाहियें।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥११॥

तुममें भी प्रेम की यदि जगने लगी है लौ,
तो तुम भी मुक्तिपथ के रास्ते पे निकल लो,
है रास्ता मुश्किल मगर ये मानना होगा,
पानी मुझे मंजिल जिगर में ठानना होगा।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१२॥

जो मारते छलांग वही पार उतरते,
वरना तो लोग दुनिया में जीते हैं न मरते,
कीड़ों की तरह जिंदगी कट जाती है उनकी,
मरने के बाद याद भी मिट जाती है उनकी।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१३॥

उनके लिये जीवन के नहीं मायने कोई,
कब आये, कब चले गये, पहिचान न कोई,
जीवन तो उनका है जिन्हें औरों की फ़िक्र है,
मरने के बाद उनका ही दुनिया में जिक्र है।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१४॥

आये हो जो संसार में ऐसे करम करो,
औरों के वास्ते जियो सबका भला करो,
हर दम रहो तैयार दु:खी की मदद को तुम,
पाओगे शुभाशीष खुद अपने प्रभु से तुम।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१५॥

जितनी कमाई पुण्य की करते चलोगे तुम,
मुक्तिपथ की राह पर बढ़ते रहोगे तुम,
सारा जहां तुम्हारी ही जयकार करेगा,
खुद ईश्वर तुम्हारा साधुवाद करेगा।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१६॥

घर घर में लोग बातें तुम्हारी ही करेंगे,
होगा जहाँ सत्संग तुम्हें स्मरण करेंगे,
देंगे उदाहरण तुम्हारी प्रेम भक्ति का,
तव कृत्य सहारा बनेगा उनकी शक्ति का।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१७॥

क्या खूब हो हर व्यक्ति मुक्ति राह थाम ले,
बढ़ता चले कदम-कदम ईश्वर का नाम ले,
देखेंगे जब उसकी ललक वे आप आयेंगे,
खुद अपने साथ उसको प्रभु ले के जायेंगे।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१८॥

उसकी सुरत को प्रभु चरण में स्थान मिलेगा,
दोनों जहां में उसको खास मान मिलेगा,
जीवन-मरण उस व्यक्ति का कहलाएगा सफल,
आयेंगे याद नेत्र भी हो जायेंगे सजल।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥१९॥

कहना सरल है मगर करना बड़ा कठिन,
और उसपे कहर बांधने से बंधता नहीं मन,
जितना इसे साधो ये उतना तेज भागता,
जागो तो सुलाता है ये सोवो तो जगाता।

मुक्तिपथ पे चलिये, जन्म सुफल करिये,
प्रेम पथ पे चलिये, जन्म सफल करिये। ॥२०॥

क्रमश: